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ढूह की ओट बैठे / अज्ञेय

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ढूह की ओट बैठे
बूढ़े से मैंने कहा :
मुझे मोती चाहिए ।

उसने इशारा किया :
पानी में कूदो !
मैंने कहा : मोती मिलेगा ही, इस का भरोसा क्या ?
उस ने एक मूँठ बालू उठा मेरी ओर कर दी ।
मैंने कहा : इस में से मिलेगा मुझे मोती ?
उस ने एक कंकड़ उठाया और
अनमने भाव से मुझे दे पारा ।

मैंने बड़ा जतन दिखाते हुए उसे बीन लिया
और कहा : यही क्या मोती है-
आप का ?

धीरे-धीरे झुका माथा ऊँचा हुआ,
मुड़ा वह मेरी ओर ।
सागर-सी उसकी आँखें थीं
सदियों की रेती पर
इतिहास की हवाओं की लिखतों-सी
नैन-कोरों की झुर्रियाँ ।
बोला वह :
(कैसी एक खोई हुई हवा उन
बालूओं के ढूहों में से, घासों में से
सर्पिल-सी फिसली चली गई)

हाँ :
या कि नहीं क्यों ?
मिट्टी के भीतर
पत्थर था
पत्थर के भीतर
पानी था
पानी के भीतर
मेंढक था
मेंढक के भीतर

        अस्थियाँ थीं यानी मिट्टी-पत्थर था,
       लहू की धार थी यानी पानी था,
       श्वास था यानी हवा थी,
       जीव था-यानी मेंढक था ।

मोती जो चाहते हो
उस की पहचान अगर यह नही
तो और क्या है ?