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ढॅंक सकी न उरज-कुम्भ को कंचुकि अलक-गुँथी माला बिखरी / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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ढॅंक सकी न उरज-कुम्भ को कंचुकि अलक-गुँथी माला बिखरी।
खेलने लगे प्रिय तुम उभार कर हृदय-हार की लरी-लरी।
क्या कर सकती थी, पूर्ण-काम तुम हुये यत्न से, उर-चंदन।
मेरा उर पर रख व्रजवल्लभ विह्वल पलोटने लगे चरण।
रसिकेश्वर! मैं न निभा पायी किंचित विनोद की परम्परा।
निशि उड़ी विहॅंग-सी शून्य छोड़कर केलि-पिंजरा लिये त्वरा।
रतिपति-ध्वज-मीन बनी विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥139॥