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ढोंग जात्यौ ढरकि परकि उर सोग जात्यौ / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
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ढोंग जात्यौ ढरकि परकि उर सोग जात्यौ
जोग जात्यौ सरकि स-कंप कँखियानि तैं ।
कहै रतनाकर न लेखते प्रपञ्च ऐंठि
बैठि धरा न लेखते कहूँधौं नखियानि तैं ॥
रहते अदेख नाहिं वेष वह देखत हूँ
देखत हमारी जान मोर पँखियानि तैं ।
ऊधौ ब्रह्म-ज्ञान कौ बखान करते न नैंकु
देख लेते कान्ह जौ हमारी अँखियानि तैं ॥65॥