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ढोते-ढोते उजले चेहरे, हमने काटी बहुत उमर / ललित मोहन त्रिवेदी
Kavita Kosh से
ढोते-ढोते उजले चेहरे, हमने काटी बहुत उमर !
अब तो एक गुनाह करेंगे, पछता लेंगे जीवन भर !!
वो रेशम से पश्मों वाला, था तो सचमुच जादूगर !
मोर पंख से काट ले गया, वो मेरे लोहे के पर !!
उसको अगर देखना हो तो, आंखों से कुछ दूर रखो !
कुछ भी नहीं दिखाई देगा, आंखों में पड़ गया अगर !!
प्यास तुम्हारी तो पोखर के, पानी से ही बुझ जाती !
किसने कहा तुम्हें चलने को, ये पनघट की कठिन डगर !!
ज्ञान कमाया जो रट-रट कर, पुण्य कमाए जो डरकर !
उसकी एक हँसी के आगे, वे सबके सब न्यौछावर !!
सिर्फ़ बहाने खोज रहा है, पर्वत से टकराने के !
बादल भरा हुआ बैठा है, हो जाने को झर झर झर !!
और भटकने दो मरुथल में, और चटखने दो तालू !
गहरी तृप्ति तभी तो होगी, गहरी होगी प्यास अगर !!