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ढोलतंत्र / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
बढ़ी नहीं भारत की सीमा कुछ-कुछ भले घटी है
लेकिन लोगों की हाही की सीमा बढ़ती जाती
माँग माँग पर, बिना रुके ही, ऊपर चढ़ती जाती
इसीलिए बाजार बढ़े हैं, उजड़ी पंचवटी है ।
खाने के आसन पर कुर्सी, काँटा, चम्मच भारी
देशी व्यंजन, गंध विदेशी, रुपयों पर है रूबल
सौ को थाह-पता ना चलता, क्या पैसे का संबल
कुटिया की भी इच्छा अब तो चढ़ कर रहूँ अटारी।
अब अटारी में देवलोक का इन्द्रासन है सज्जित
मोती का तकिया, हीरे की चादर और बिछावन
सौदागर कहते हैं, ‘सूती-रेशम हुए अपावन’
सजे हुए बाजार देख कर हाट बहुत हैं लज्जित ।
सर से ऊपर दाम हुआ हैµचाँदी का, सोने का,
क्या कमाल है ढोलतंत्रा के जादू का, टोने का ।