भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तंग थी जा ख़ामिर-ए-ना-शाद में / मुस्तफ़ा ख़ान 'शेफ़्ता'
Kavita Kosh से
तंग थी जा ख़ामिर-ए-ना-शाद में
आप को भूले हम उन की याद में
क्यूँ-कर उठता है ख़ुदा रंज-ए-क़फ़स
मर गए हम तो कफ़-ए-सय्याद में
वो जो हैं तारीख़ से वाक़िफ बताएँ
फ़र्क़ बाद-ए-आह ओ बाद-ए-आद में
याँ उम्मीद-ए-क़त्ल ही ने ख़ूँ किया
रह गई हसरत दिल-ए-जल्लाद में
बे-तअल्लुक़-पन भी आख़िर कै़द है
कै़द पाई ख़ातिर-ए-आज़ाद में
ग़म्जा-ए-शीरीं की दौलत से था
जो असर था तीशा-ए-फ़रहाद में
क्यूँ ख़बर पूछी तेरा बीमार हाए
मर गया शोर-ए-मुबारक-बाद में
बे-तकल्लुफ़ जी में जो आए करो
क्या धरा है नाला ओ फ़रियाद में
ध्यान तुझ को हो न हो पर ‘शेफ़्ता’
रात दिन रहता है तेरी याद में