तंत्री के तार / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
टूट गये तंत्री के तार;
रही नहीं अब वह स्वर-लहरी, रही नहीं अब वह झंकार।
कुसुमोपम मृदु उँगली से छिड़ नहीं बरसते हैं रस-धार;
हैं प्रदान करते न पवन को मुग्धकरी धवनि मधुर अपार।
हैं न कान को सुधा पिलाते, हैं न हृदय हरते प्रति बार;
हैं न सुनाते सरस रागिनी, बनते हैं न सरसता-सार।
हैं न उमंगित करते मानस, हैं न तरंगित चित आधार;
हैं न बहाते वसुधातल में रसमय उर के सोत उदार।
मर्म-व्यथा
बिखर रहा है चंद हमारा।
सकल-लोक-मानस-अवलंबन, जगतीतल-लोचन का तारा;
राका-रजनि-अंक-अनुरंजन है आवरित निविड़ घन द्वारा।
है हो रहा अकांत कांत तन बहु नीरस सरसित रस-धारा;
अधाम सिंहिकानंदन से है अवनीतल-अभिनंदन हारा।
सुधा-धाम है सुधा-विहीन-सा, मुद-विहीन है कुमुद-सहारा;
पानिप-हीन आज है होता प्रतिपल पाथ-नाथ-सुत प्यारा।
तदपि गगनतल है न विकंपित, अतुलित व्यथित न कोई तारा;
अहह रसातल है सिधारता भव-वल्लभ, दिवलोक-दुलारा!