तंद्रा में अनुभूति
उस तम-घिरते नभ के तट पर स्वप्न-किरण रेखाओं से
बैठ झरोखे में बुनता था जाल मिलन के प्रिय! तेरे।
मैं ने जाना, मेरे पीछे सहसा तू आ हुई खड़ी
झनक उठी टूटे-से स्वर से स्मृति-शृंखल की कड़ी-कड़ी।
बोला हृदय, 'लौट कर देखो प्रतिमा खो मत जाय कहीं!'
किन्तु कहीं वह स्वप्न न निकले-इस से साहस हुआ नहीं!
हाय, अवस्था कैसी थी वह! वज्राहत-सा हृदय रहा
जाना जब तब अकथ व्यथा से अंग-अंग था कसक रहा।
यही रहेगा क्या प्रियतम! अब सदा के लिए अपना प्यार?
तन्द्रा में अनुभूति, किन्तु जागृति में केवल पीड़ा-भार?
लाहौर, 6 अक्टूबर, 1934