तकदीर का बँटवारा / हुंकार / रामधारी सिंह "दिनकर"
है बँधी तकदीर जलती डार से,
आशियाँ को छोड़ उड़ जाऊँ कहाँ?
वेदना मन की सही जाती नहीं,
यह जहर लेकिन उगल आऊँ कहाँ?
पापिनी कह जीभ काटी जायगी
आँख देखी बात जो मुँह से कहूँ,
हड्डियाँ जल जायेंगी, मन मार कर
जीभ थामें मौन भी कैसे रहूँ?
तान कर भौहें, कड़कना छोड़ कर
मेघ बर्फों-सा पिघल सकता नहीं,
शौक हो जिनको, जलें वे प्रेम से,
मैं कभी चुपचाप जल सकता नहीं।
बाँसुरी जनमी तुम्हारी गोद में
देश-माँ, रोने-रुलाने के लिए,
दौड़ कर आगे समय की माँग पर
जीभ क्या, गरदन कटने के लिए।
जिन्दगी दौड़ी नयी संसार में
खून में सब के रवानी और है;
और हैं लेकिन हमारी किस्मतें,
आज भी अपनी कहानी और है।
हाथ की जिसकी कड़ी टूटी नहीं
पाँव में जिसके अभी जंजीर है;
बाँटने को हाय! तौली जा रही,
बेहया उस कौम की तकदीर है!
बेबसी में काँप कर रोया हृदय,
शाप-सी आहें गरम आयीं मुझे;
माफ करना, जन्म ले कर गोद में
हिन्द की मिट्टी! शरम आयी मुझे!
गुदड़ियों में एक मुटूठी हड्डियाँ,
मौत-सी, गम की मलीन लकीर-सी,
कौम की तकदीर हैरत से भरी
देखती टूक-टूक खडी तस्वीर-सी।
चीथडों पर एक की आँखें लगीं,
एक कहता है कि मैं लूँगा जबाँ;
एक की जिद है कि पीने दो मुझे
खून जो इसकी रगों में है रवां!
खून! खूं की प्यास, तो जाकर पियो
जालिमो! अपने हृदय का खून ही;
मर चुकी तकदीर हिन्दुस्तान की,
शेष इसमें एक बूँद लहू नहीं।
मुस्लिमों! तुम चाहते जिसकी ज़बाँ,
उस गरीबिन ने ज़बाँ खोली कभी?
हिंदुओ! बोलो तुम्हारी याद में
कौम की तकदीर क्या बोली कभी?
छेड़ता आया जमाना, पर कभी
कौम ने मुँह खोलना सीखा नहीं।
जल गयी दुनिया हमारे सामने,
किन्तु, हमने बोलना सीखा नहीं।
ताव थी किसकी कि बाँधे कौम को
एक होकर हम कहीं मुंह खोलते?
बोलना आता कहीं तकदीर को,
हिंदवाले आसमाँ पर बोलते।
खूं बहाया जा रहा इन्सान का
सींगवाले जानवर के प्यार में!
कौम की तकदीर फोड़ी जा रही
मस्जिदों की ईंट की दीवार में।
सूझता आगे न कोई पन्थ है,
है घनी गफलत-घटा छायी हुई,
नौजवानो कौम के! तुम हो कहाँ?
नाश की देखो घड़ी आयी हुई।
(कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच समझौता-वार्ता के असफल होने पर रचित 1938 ई0)