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तकनीकि के मारे हम श्रमहारे / सुशील मानव

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बरसों-बरस हुए शहर आए
इतने बरस कि शहरी ही हो गया पूरी तरह मैं
कितना शहरी?
इतना कि रातों-दिन दौड़ती हैं गाड़ियां मेरी नसों में
इतना कि मुझे पथरती हैं कंपनियाँ मेरे सपनों में भी
इतना की सारे विषैले केमिकल उगल देती हैं फैक्ट्रियाँ मेरे मुँह पे
नींद तो ज्यों शहर आते ही घड़ी के काँटों पे धर दी हो मैंने
हालाँकि कहने वाले अब भी कहते रहे
बरसों रहकर भी न सीख पाए तुम शऊर
न खाने का, न जीने का
न संस्कृति न भाषा तक सीख पाए तुम शहर की
शहरी क्या खाक़ हुए
गोया कि मैं जानता हूँ
भले ही ऊपर से न ओढ़ा हो मैंने शहर को
पर उजाड़कर मेरे भीतर का भरा-पूरा गाँव
बस गया है शहर आप से आप, पूरे शोर शराबे के साथ
इतना शोर कि एक रोज सुन ही नहीं पाता
अपनी धड़कनें तक मैं
मेरे गुर्दों से हवा फिल्टर करता शहर
इस्तेमाल करता है मुझे फिल्टर बॉक्स की तरह

उस रोज अचानक जीवन की चाह जगी
तो तोड़कर यंत्रवत्ता की सारी फाँद, भागा अपने गाँव
और आते ही सबसे पहले निकाल दी मैंने बैटरी
घड़ी से, मोबाइल से, रेडियो से, टॉर्च से और,... बच्चों के खिलौने से

आज रात बरसों बाद बेखटके सोया मैं
अलार्म नहीं मुर्गे की बाँग पे खुली आँखें
तो जिंदगी में साँस भरती भोर देखा
चहकती, चिंचियाती गौरैया
कभी मेरी खटिया के सिरहाने बैठतीं कभी पैताने
कभी इस पाटी फुदकती तो कभी उस पाये
गिलहरियाँ उछलकूद करती कभी पेड़ की डालियों पर, कभी मन की

खटिया से उठकर चरही की ओर गया तो नदारद मिले बैल
अलबत्ता वक्त के गले में टँगा टूटा जुआठ मिला
पिता के सीने में गड़े मिले हल और हेंगा
मैं भागा भागा पासी-टोले गया
टूटी-फूटी खुर्दी-काठी मिली मुझे जमाने की कूबड़ पे
अलबत्ता नहीं दिखे ऊँट एक भी
फिर भागा बदहवाश मैं दलित बस्ती की ओर
एक घर के मुँहारे चौखट में ठुकी मिली घोड़े की नाल
कि जिस इक्के ताँगे पे बैठ हम स्कूल जाते रहे
जमीन में गड़े मिले उनके गतिविहीन पहिये
बीसवीं सदी के आखिरी दशक तक इक्कावान रहे बूढ़े चइतू बबा मिले
तो रुँधे गले बताने लगे मुझे
कि डीजल-पेट्रोल पीकर दौड़नेवाले घोड़ो ने
रेस में सदियों पीछे छोड़ दिया है हमारे घास खाने वाले घोड़ों को
जहाँ से चाहे भी तो अब इस सदी में छलाँग नही लगा सकता घास वाला घोड़ा

फिर भागा भागा पहुँचा मैं लोनिया समुदाय की बस्ती की ओर
जो भैंसे पर लाद-फाँदकर ढोया करती थे कभी मिट्टी
पर ये क्या, वहाँ खड़ी ट्रॉली ने भैंसे की ही माटी पलीद कर रखी है
दुखी और हताश धोबियाने की ओर पलटा मैं
गधे की जगह खड़ी मोटरबाइक पे लदी मिली लादी

जो थोड़े-मोड़े बचे पालतू जानवर
बहेंतू पानी की तरह छोड़ दिए गए
समय की ढलान पर बह जाने को अभिशप्त
बैल, साँड़, भैंसा, गधा और घोड़ा

स्मृतियों में करके सेंधमारी
प्रौद्योगिकी ने बदल दिए हैं उनसे हमारे संबंध
कल तक जो श्रमवीर थे, दोस्त थे
शान थे किसान के दरवाजे की, मजदूर के दुआर की
आज वे अपराधी हो गए हैं
और किसान दौड़ रहा उनके पीछे लिए बल्लम और बर्छी
प्रौद्योगिकी ने सबसे पहले छीना उनका खाना
खत्म करके चारागाह और जंगल
फिर खत्म करके उनके श्रम का मूल्य
बना दिया उन्हें मूल्यविहीन-जीव

जबकि गेहूँ के खेत में गिरा पड़ा है एक साँड़
सड़कर पूरे शरीर में फैल गए हैं घाव
उठाने भगाने की व्यर्थ कोशिश में लगे हैं लोग
जबकि मरन-पीड़ा से कलझता जोह रहा अपनी मौत
साँड़ के घटका लगा है

तकनीकि इस क्रूर युग का सबसे बड़ा हत्यारा है
एक रोज जब ऑटोमेशन मोड में आ जाएगी समूची दुनिया
इसी तरह किसी रोज
बहिया दिए जाएगें हम श्रमहारे भी, सभ्यता की दुआर से
बाकायदा अ​​पराधी घोषित होकर
और दुनिया इसी तरह बल्लम बर्छी की नोक पर रखेगी हमें भी
जैसे आज घोंपे जा रहे हैं बैलों, भैसों, गधों के जिस्मों को
जैसे घाव की सड़न से मर रहे वो आज कलझ कलझ कर अपना जन्म
या क्या पता बिहार के नीलगायों की तर्ज पर हमें भी
सीधे गोली मार देने का जारी हो जाए आदेश
मैं आशंकित हूँ अपने श्रमहारा समुदाय के ताईँ
मैं सशंकित हूँ अपने अस्तित्व के ताईं
जोर-जबर्दस्ती नइहर खदेड़ दी गई बीमार स्त्रियों की तरह।