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तकमील-ए-इश्क़ जब हो कि सहरा भी छोड़ दे / 'सहर' इश्क़ाबादी
Kavita Kosh से
तकमील-ए-इश्क़ जब हो कि सहरा भी छोड़ दे
मजनूँ ख़याल-ए-महमिल-ए-लैला भी छोड़ दे
कुछ इक्तिज़ा-ए-दिल से नहीं अक़्ल बे-नियाज़
तन्हा ये रह सके तो वो तन्हा भी छोड़ दे
या देख जाहिद उस का पस-ए-पर्दा-ए-मजाज
या ऐतबार-ए-दीदा-ए-बीना भी छोड़ दे
कुछ लुत्फ़ देखना है तो सौदा-ए-इश्क़ में
ऐ सर-फ़रोश सर की तमन्ना भी छोड़ दे
वो दर्द है कि दर्द सरापा बना दिया
मैं वो मरीज हूँ जिसे ईसा भी छोड़ दे
आँखें नहीं जो क़ाबिल-ए-नज़्ज़ारा-ए-जमाल
तालिब से कह दो जौक़-ए-तमाशा भी छोड़ दे
है बर्क़-पाशियों का गिला ‘सेहर’ को अबस
क्या उस के वास्ते कोई हँसना भी छोड़ दे