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तक़दीर का शिकवा बे-मानी जीना ही तुझे मंज़ूर नहीं / मजरूह सुल्तानपुरी

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तक़दीर का शिकवा बेमानी, जीना ही तुझे मन्ज़ूर नहीं
आप अपना मुक़द्दर बन न सके इतना तो कोई मजबूर नहीं

ये महनफ़िले-अहले-दिल है यहाँ हम सब मैकश हम सब साक़ी
तफ़रीक़ करें इन्सानों में इस बज़्म का ये दस्तूर नहीं

जन्नत-ब-निगह, तसनीम-ब-लब, अन्दाज़ उसके ऐ शैख़ न पूछ
मैं जिससे मोहब्बत करता हूँ, इन्सान है ख़याली हूर नहीं

वो कौन सी सुबहें हैं जिनमें बेदार नहीं अफ़सू तेरा
वो कौन सी काली रातें हैं जो मेरे नशे में चूर नहीं

सुनते हैं कि काँटे से गुल तक हैं राह में लाखों वीराने
कहता है मगर ये अ़ज़्मे-जुनू सहरा से ग़ुलिस्ताँ दूर नहीं

'मजरूह' उठी है मौजे-सबा आसार लिए तूफ़ानों के
हर क़तरा-ए-शबनम बन जाए इक जू-ए-रवां कुछ दूर नहीं