Last modified on 6 मार्च 2011, at 14:53

तटस्थ लोगों के देश में / सांवर दइया

ठीक दोपहर
उछाल रहा था सूरज
आकाश से अंगारे
मैंने पूछा उस से,
“आताप कितना तेज है ?”
उन्होंने हंस कर कहा-
“होगा ।”

अमावस्या की रात
यदि मैं पूछ्ता उन से-
“अंधेरा कितना काला है !”
वह हंस कर कहेंगे-
“होगा ।”

महसूस किया मैंने
नहीं है उन का सरोकार-
सर्दी की ठंड से
गर्मी की तपन से
फागुन की हवा से
चौमासे की वर्षा से
बसंत और पतझड़ से
खिलते-झरते फूलों से
या हरदम साथ रहने वाले कांटों से,
नहीं है उन का सरोकार !

वह तो तटस्थ हैं
एकदम तटस्थ
आदमी की जिंदगी और मौत से भी
विचलित नहीं होते
उन के लिए तो
कुछ भी हो
लेकिन हो जरूर

वह तो अलापते हैं
बस एक ही राग
जो कुछ भी हो, कहेंगे-
होगा… होगा… होगा…


अनुवाद : नीरज दइया