भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तटिनी के प्रति / मुकुटधर पांडेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अरी ओ तटिनी, अस्थिर प्राण
कहाँ तू करती है प्रस्थान?
कंठ में है अविरल कल-कल
अमल जल आँखों में छल छल
नहीं चल-चल में पल भी कल
चल पल-पल चंचल-अंचल
रुदन है या यह तेरा गान?

चरण में तन में कुछ कम्पन
निरन्तर नुपूर का निक्वण
नयन में व्याकुल सी चितवन
भ्रमरियों का यह आवर्तन
विवर्तन परिवर्तन, नर्तन
कभी मुख पर नव अवगुण्ठन
कभी अधरों पर मृदु मुस्कान

-1931