भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तड़ित रश्मियाँ / शैलेन्द्र चौहान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पेड़ पर टंगी उदासी

पूर्णिमा के चाँद की तरह

झाँकती है स्पष्ट


कोहरे में छुपी
धूल में लिपटी
बारिश में भीगी
मेघ गर्जन सी


तड़ित रश्मियाँ
एकाएक छिटक जाती हैं
देश-प्रदेश के
सीले भू-भाग पर
कौंधती हैं स्मृतियाँ
बीते युगों की