तेरे मनमें तत्त्व है, तैं अनतै कित घाव।
धरनी गुरु-उपदेश लै, घरहि माँह घर छाव॥1॥
सहस सूर जो ऊगहीं, चन्दा चारि हजार।
धरनी केवल तत बिना, तबहूँ घर अंधियार॥2॥
जो जन तत्त्व सनेहिया, धरनी कही बुझाय।
रंगमहल बिनु धारहीँ, जब तव आवैं जांय॥3॥
अर्द्ध-कमलके ऊपरै, तहां दुआदश एक।
धरनी भवजल बूडते, गुरु गम पकरी टेक॥4॥
दिया दिया घर-भीतरे, वाती तेल न आगि।
धरनी मन वच कर्मना, तासों रहना लागि॥5॥
विनुपगु निर्त करो, तहाँ, बिनु कर दै दे तारि।
विनु नयनन छवि देखना, बिना श्रवन झँकारि॥6॥
देह देवघर भीतरे, मूरति जोति अनूप।
मोती अच्छत चढ़त है, धरनी सहज सरूप॥7॥
देह देवघर भीतरे, मूरति करि कल्यान।
धरनी दर्शन करत हैं, विरले सन्त सुजान॥8॥
बहुत दुआरे सेवना, बहुत भावना कीन्ह।
धरनी मन संशय मिटो, तत्व परो जब चीन्ह॥9॥
धरनी चहुँदिशि दौरिया, जँहलों मनकी दौर।
एक आत्मा तत्व बिनु, अनते पाइ न ठौर॥10॥
तब लगि प्रगट पुकारिया, जब लगि निवरी नाँहि।
धरनी जब निवरी परी, मनकी मनही मांहि॥11॥
धरनी हृदय पलंगरी, प्रीतम पौढे आय।
समा सुजीजै श्रवनते, कहे कवन पतियाय॥12॥