क्यों आता है प्रेम तुम पर
क्रोध के बाद
आज तक नहीं समझ पाया ।
क्या एक-दूसरे को
समझने के लिए
ज़रूरी है
प्रेम और क्रोध
साथ-साथ ?
कई बार घृणा
और प्रेम भी रहते हैं
साथ-साथ
एक ही घर में
एक ही छत के नीचे
जितनी तीव्र घृणा
उतना ही तीव्र प्रेम
प्रेम के ये अलग-अलग रूप हैं
या कुछ मज़बूरियाँ
अपने ज़माने की
कई बार ईर्ष्या भी होती है
तुमसे
पर उसमें भी छिपा होता है
कहीं-न-कहीं प्रेम
तुमसे प्रेम करते हुए
मैं अपने क्रोध
घृणा और ईर्ष्या
से भी लड़ता हूँ
लड़ता हूँ अपने लालच से
तुम्हें पाने का लालच
मैं जानता हूँ
किसी भी तरह का लालच
ठीक नहीं जीवन में
किसी तरह का अधिकार भी
ठीक नहीं तुम पर
बिना किसी अधिकार के
बिना किसी चाह के
क्या मैं कर पाऊँगा
प्रेम किसी से
यह सवाल डँसता रहता है मुझे
इस प्रेम में
जिसे अभी तथाकथित
कहना ही ठीक है
मेरी समझ से ।