भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तन्हा खड़े साए / प्रेम कुमार "सागर"
Kavita Kosh से
हम कभी भी सर पर अपने छत न पाते है
तभी तो ख्वाब में अक्सर सुहाना घर बनाते है
सजा था एक घरौंदा प्यार के अहसास में पलकर
हमें बचपन के वे सुन्दर तराने याद आते है
तड़प होठों के जल जाने की जब इतना रुलाती है
फिर हुस्न वाले क्यूँ किसी का दिल जलाते है
भरी महफ़िल, गुजरती भीड़ में तन्हा खड़े साए
रोते है फुसफुसाते है, व्यथा अपनी सुनाते है
बस दो घड़ी में थक गए तुम हारकर खुद को
अभी तो और भी दिन है, अभी तो और रातें है
जज्बात मर चुके यहाँ, बस जिस्म जिन्दा है
तभी 'सागर', के कब्र पर दीया मुर्दे जलाते है ||