भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तन कर बैठो / सभामोहन अवधिया 'स्वर्ण सहोदर'
Kavita Kosh से
जब बैठो, तब तनकर बैठो,
कभी न कुबड़े बनकर बैठो।
काम करो या ठाले बैठो
मगर न ढीले-ढाले बैठो।
सारा बदन सँभाले बैठो,
कूबड़ नहीं निकाले बैठो।
जब बैठो तब तनकर बैठो,
कभी न ढीले बनकर बैठो।
सीधे बैठो सादे बैठो,
मगर न आलस लादे बैठो।
गर्दन, रीढ़ तनाए बैठो,
कभी न कमर नवाए बैठो।
जब बैठो तब तनकर बैठो,
कभी न बूढ़े बनकर बैठो।