भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तन की ख्वाहिश मन की लगन को सू-ए-हवस ले... / रमेश 'कँवल'
Kavita Kosh से
तन की ख़्वाहिश मन की लगन को सू-ए-हवस1 ले जायेगी
किसको खबर थी तेरी जुदार्इ ये दिन भी दिखलायेगी
जनम जनम के साथ का वादा पलक झपकते टूट गया
अब कोर्इ अनजानी गोरी जीवन में रम जायेगी
राधा जिसकी विरह में जीवन भर सुलगी,
उस प्रेमी को क्या मालूम था ये दुनिया इक दिन अवतार बनायेगी
हम बेहद मश्कूर2 हैं उसके जो बख्शा है कुदरत ने
क्या कीजे उस शै की शिकायत जो नह में मिल पायेगी
जाड़े के सूरज की तरह अच्छा लगता है रूप तेरा
तेरे रूप की धूप भी लेकिन कब तक मन बहलायेगी
रह न सकी महफ़ूज़3 जहां दो रूहों की पहचान 'कंवल'
वहां बदन की धूप ही कब तक ज़ख़्मों को सहलायेगी
1. वासना की ओर 2. कृतज्ञ 3. सुरक्षित