भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तन के जो सर खड़ा है / हरिवंश प्रभात
Kavita Kosh से
तन के जो सर खड़ा है, उसको झुका के देखूँ।
दिल से मुहब्बतों की गंगा बहा के देखूँ।
करते हैं सिर्फ़ भाषण, देते हैं आश्वासन,
क्या झूठे जो हैं नेता, गर्दन दबा के देखूँ।
कंकड़ हैं चावलों में, आँतों में गड़ रहे हैं,
मैं किस तरह से, लोहा चबा के देखूँ।
सोयी है जाने कब से, सरकार बन के घर में,
आफ़त गले पड़ी है, इनको जगा के देखूँ।
कैसे नहीं बनेगा, अब काम ऑफ़िसों में,
कुर्सी के साहबों को, मक्खन लगा के देखूँ।
अब ज़िन्दगी की गाड़ी, चलती है जैसे-तैसे,
लगता है जीते जी ही, बरसी मना के देखूँ।
अन्दर की बात है पर, 'प्रभात' सब पता है,
लगता है दुश्मनों को, फिर से मना के देखूँ।