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तन को ढकने की कोई चीज़ तो है / श्याम कश्यप बेचैन

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तन को ढकने की कोई चीज़ तो है
यार, घुटने तलक कमीज़ तो है

वो न पिघला, ये सच है पर उसको
अपनी पत्थरदिली पे खीज तो है

छोड़ें कैसे, वहाँ मिले ना मिले
कोई अपना यहाँ अज़ीज़ तो है

क्या हुआ, गर बदल गया गुंबद
सर रगड़ने को देहलीज़ तो है

बेअदब दोस्त से बेहतर है वो
दुश्मनी की उसे तमीज़ तो है

सारा खलिहान जल गया तो क्या
मेरी मुट्ठी में बंद बीज तो है