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तन पर सूजन / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
तन पर सूजन
मन पर घाव
खरोंचे लिए
आंगने आ लेटी
गोधूली
आ गई देखते वह भी
खामुशी
पड़ौसन थी जो
सेके गई
गरम-गरम फोहों से
ठरी-ठरी
आंखों के आगे
खिंच-खिंच खिंची
अतीत की रेखाओं पर
धुनी अंधेरा
रहा फिराता
एक रंग की बुरुश
जाने किसने
होले से उतार ली
काली कामल
खुभोदी
किरण सुबह की
अंगुली पकड़
उठा किया घर बाहर
दिखा-
गली हाथ मांजे थी
पांवों तने खड़ी थी सड़क
मुंह मांज रहा था
शोर सुबह का
अगस्त’ 80