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तन मन पुलकित कर देती है / पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'

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तन-मन पुलकित कर देती है, भोर हमारे गाँव की।
क्या कहना कोयल की बोली, अरु कागा के काँव की॥

बोल रहा जुम्मन का मुर्गा, खाट ज़रा अब छोड़ दो।
रामू काका सुत से कहते, बैल जुआ में जोड़ दो।
सोंधा-सोंधा महका चौका, आँगन कितना साफ है,
मधुर-मधुर श्रम गीता गाए, पायल गोरी पाँव की।
तन-मन पुलकित कर देती है, भोर हमारे गाँव की॥

अपना-अपना द्वार बुहारें, गमछा बाँँधें शीश में।
पैर छुएँ लघु वृद्ध-बड़ों के, हाथ उठें आशीष में।
दाना-भूसा-खली मिलाकर, डाला अपनी गाय को,
उछल कूद करता है बछड़ा, कहता बात स्वभाव की।
तन-मन पुलकित कर देती है, भोर हमारे गाँव की॥

तोड़-तोड़ दातुन नीम की, मैल छुड़ाते दाँत का।
लोटा-लोटा पीते पानी, जो रक्खा था रात का।
शीतल-मंद बयार बह रही, मनमोहक परिवेश है,
पेट सभी का कहता जल्दी, खोज करो इक ठाँव की।
तन-मन पुलकित कर देती है, भोर हमारे गाँव की॥