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तपते टीलों पर / सांवर दइया

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तपते टिलों पर
दूर कहीं पानी की झलक
पथराती आंखों में कौंधी ललक

टूट रहा था अंग-अंग
फिर भी भरी कुलांच

लेकिन यह जल
था केवल छल

इस सच से टकराते ही
गिरा वही ‘ताड़ाछ’ खाकर
तपते टीलों पर
आग बरसाते सूरज के नीचे……