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तपते वर्ष में / राजा अवस्थी

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कब तक चुप्पी साधें
इस तपते वर्ष में।

बरसों से नदिया ने
होंठ नहीं चूमे हैं
प्यासे के प्यासे
तटबंध जल रहे;
जी भरकर फिर कछार
नहा नहीं पाये हैं
उमड़-घुमड़ चले गये
मेघ छल रहे;
जीवटता बाकी है
जीना संघर्ष में।

भीतर की माटी सब
रेत हुई जाती है,
यन्त्रों ने चूस लिया
अन्तस का पानी;
आमों के बाग काट
विजयी ध्वज फहराये,
नीलगिरी रोप रही
नित कुर्सी रानी;
कौन मनाये उत्सव
किसके उत्कर्ष में।