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तप्तगृह / सर्ग 2 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

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आकर प्रतीहार ने
सादर प्रणाम किया
बोला फिर कोणक से-
”द्वार पर पधारे हैं
आचार्य देवदत्त
दर्शनार्थ चाहते हैं
आज्ञा कुमार की।

घोरातिघोर गिरि-
कानन के शून्य-सा
नीरव प्रकोष्ठ था
बैठा एकाकी था
कोणक अशांत-सा
वायु के थपेड़ों से
क्षुध नील-जल-तल पर
लोटता है कन्दुक-सा
पूनम का चाँद ज्यों
दोलित त्यांे होता था
मुख-फलक उसका
उन्नत ललाट पर
रेखाएँ अनमिल-सी
रह-रहकर बनती थी
मानो भाग्य-पट पर
लिखता हो काल कुछ
और फिर अदृष्ट के
कर से मिटाता हो!
आँखें थीं देख रहीं

चित्र भाँति-भाँति के
शून्य की तरंगों में
जो समौन उठती थीं
चूम तट भविष्य का
जिसकी पुकार को
सुनने में लीन थे,
श्रवण द्वार खोलकर,
चाहते नहीं थे वे
अन्य स्वर सुनना,
किंतु प्रतीहार का
सविनय निवेदन यह
कोणक को जान पड़ा
स्वप्निल व्यवधान के
मूक-सम्मोहन-सा

और वह बोला यों-
‘आचार्य देवदत्त
आए हैं, ऐसे ही
आता महाप्लावन भी
आना जलप्लावन का
अनिवार्य जीवन में
होता प्रतीत कभी
जलावर्त्त सब ओर
डूबी धरित्री हो
डूबी दिशाएँ हों
डूबा नभ-मंडल हो
तिरती हो भीमकाय
ढेबों पर विप्लवी
चाह अपराजिता
मुक्त कर बन्धन से
अपने उन्माद को,
स्यात इसी ढंग से
नवीन सृष्टि होती है
देवदत्त आये हैं
आने दो, स्वागत है।“

लौटा प्रतीहार कब
कोणक को ज्ञात नहीं
वह तो निमग्न एक
पल में ही हो गया
कूल-हीन वृन्त-हीन
सपनों में अपने।
कौशिकी पड़ी रही
सामने, न डोल पाई
भीतर की मृद्विका।
ऐसा ही तीव्रतर
होता माध्वीक है
सपनों का मन के,
लज्जित-से दीखते
जिसकी तरंग के
रंग की चमक में
रंग इन्द्रधनु के

देवदत्त ने समीप
आकर पुकारा जब
कोणक ने हाथ जोड़
सादर प्रणाम किया
स्थान दिया पास ही
और लगा एकटक
भिक्षु को निहारने।
सोचा देवदत्त ने-
”लगता है कोणक क्यों
मद्यप-सा, खोया-सा
कोणक ही एकमात्र
मेरा भरोसा है
अस्त्र है अमोघ और
अन्यतम सहारा है।
छोड़ दिया इसने यदि
अपना संकल्प तो
मेरा संकल्प भी
पतझर के पत्र-सा
लोटेगा धूल में!“

और देवदत्त के
स्वर में सशंकित-सा
विस्मय दु्रतबोल उठा-
”देखा था कल ही तो
पर्वत के उच्चतम
शृंग में टहलते थे;
कितने अरमान और
इच्छाएँ कितनी,
और आज देखता हूँ
खोया-सा रुग्ण-सा
बन्द कारागार में
जाने किस मंत्र के?

कोणक का उत्तर था-
”सत्य कहा आपने,
बन्दी हूँ आज मैं
सपनों के मंत्र का,
किंतु नहीं उतरा हूँ
नीचे गिरि-शृंग से
प्रत्युत उठ ऊपर उस
उच्चतम शिखर के,
उड़ता निर्बन्ध-सा
मेघों के पंख पर।
पृथ्वी से ऊपर हूँ,
आज बहुत ऊपर हूँ,
सुरघनु के रंगों से
रंजित घन-खंड पर
उड़ता हूँ बेध कर
व्योम-विस्तार को।
जिस ओर जाता हूँ
मिलती प्रकृति मौन
मानों खड़ी हो मूर्त्त
आरती निवेदिता!

”और जब देखता हूँ
ऊपर से धरती को,
लगता है, एक साथ
उठती हैं शत-सहó
ज्वालाएँ वह्नि की
रत्न-मुकुट कर में ले
करने उमंग से
राज-तिलक मेरा!
स्वप्नों का राज्य है
कैसा सुहावना
कितना सुहावना!
रहने न दूँगा मैं
भिक्षुवर! आपको
धूल-भरी पृथ्वी पर।“

हल्की मुस्कान एक
दौड़ गई धीरे से
होठों पर भिक्षु के
और वह बोल उठा-
”यह तो है कल्पना
सुन्दर-मधुर किन्तु
कोमल कि छूते ही
जाय मिट ओस-सी!
धरती कठोर है
क्योंकि वह सत्य है
सत्य का स्वरूप सदा
होता कठोर है;
उड़ता जो बेसुध हो
सपनों के पंख पर
उसको मैं कहता हूँ
कायर और क्लीव ही।
स्यात नहीं ज्ञात यह
आज तक कुमर को
जिसकी भुजाओं में
होता अजय बल
होता भीमकर्मा जो
मुकुट उसी वीर के
मस्तक पर साभिमान
धरती है धरती।“

नेत्र द्वय कुमार के
दहक उठे क्रोध से
और अपमान से
वाणी कुछ उग्र हुई-
”दान पर, दया पर जो
पलते हैं भिक्षु उन्हें
किसने अधिकार दिया
कहने को क्लीव और
कायर कुमार को?
कोणक के शौर्य का
प्रमाण स्वयं युग है
कोणक नरसिंह है
वीरों का वीर, बल-
पुंज वह अजेय है।
आज वह कुमार है
किन्तु, अधिकारी है
मागध-सम्राट के
राज्य-सिंहासन का।“

व्यंग्य ने प्रचण्ड
अट्टहास किया स्वर में
दुष्ट देवदत्त के-
”कोणक कुमार हैं
और रह जाएँगे
आमरण कुमार ही,
कहता हूँ सत्य मैं
वर्तमान साक्षी है
आज का मनुष्य अति
अल्पायु होता है
कोणक कुमार हैं
और अधिकारी हैं
मागध-सम्राट के
राज्य सिंहासन के
किन्तु कभी सोचा है
शुभ दिन वह आएगा
या कि रह जाएगी
आशा अधूरी ही?
शासक कुमार हैं
अंग जन-पद के
लघु-लघु प्रदेश और
मुट्ठी-भर जनता
दूर राजधानी से
इसका महत्त्व क्या?

”मागध-सम्राट अभी
बिम्बसार जीवित हैं
ज्येष्ठ पुत्र दर्शक हैं
और सम्राट की
आज्ञा से देखते
राज-काज वे ही
गिरिव्रज पर फैला है
अधिकार उनका
”इनके अतिरिक्त एक
और चट्टान है
जिस पर सम्राट का
प्रेम भी अपार है।
होंगे कुमार नहीं
भूले अभय को
जिसके शरीर में
रक्त स्लेच्छ वंश का
वेग से हैं दौड़ता
दृष्टि पड़ी जिस पर है
बज्जि-वैशाली की
चित्र में कुमार है
दीखते कहीं नहीं
उनको है प्रेम एक
छलना से, स्वप्न से।
जानते कुमार नहीं,
आती न राज्य-श्री
राजमुकुट लेकर
अपने से पास कभी।
सत्य है कि पलते हैं
भिक्षु दया-दान पर
किंतु नहीं राजमुकुट
मिलता है दान में,
वह तो पराक्रम का
पौरुष का, बल का
रक्त-भरा मूल्य है।“

कोणक गंभीर हुआ
किंचित उदास भी
किंतु अभिमान उठा
तड़प शीघ्र उसका
और तीव्र स्वर में
बोला वह-”भिक्षुवर,
यह तो असंभव है,
कहता पुकार मैं
कहता हूँ बार-बार
यह तो असंभव है!
स्वप्न मेरे फूलेंगे
विहँसेंगे, फलेंगे और
देखेगा चकित विश्व
एकटक दृश्य वह।
मिटने न दूँगा मैं
आशाएँ अपनी
और अभिलाषाएँ
जिनको दिवस-रात
पालता रहा हूँ मैं
अपने शरीर के
प्राणों के, मन के
शोणित से सींच कर
जिनका उदग्र और
उन्नत सिर ऊँचा है
उच्चतम विटंक से भी
निस्सीम नभ के!

चित्र वर्तमान का
दूँगा बदल मैं
और जो नवीन चित्र
पौरुष गढ़ेगा वह
होगा रंगीन बस
एक ही रंग से
तेजोमय एक ही
मूर्ति होगी उसमें।
जीवन-भर कोणक
रहेगा कुमार नहीं
होगा सम्राट वह
सारे मगध का।
कहता है भाग्य यही
और यही कहती है
दूर से पुकार कर
नियति निकट आके
भिक्षुवर! पथ का
आप निर्देश करें
और उस मार्ग पर
निर्भय निशंक; हो
चलेंगे पाँव मेरे!“

मुद्रा कठोर हुई
निठुर देवदत्त की
बैठा वह तन के
और अनल-कुण्ड-सी
दृष्टि लगी जलने
उसकी भयावनी
ऐसा प्रतीत हुआ
दीप दो विनाश के
हों प्रदीप्त कोटर में!
मौन वहाँ व्याप्त रहा
दो क्षण या चार क्षण
और बाद इसके
वज्र-सा उठाया निज
दक्षिणा कर उसने
और संकेत कर
खंग जिस ओर था
उंगली से, बोलउठा
”दिव्य लौह-देन वह
मार्ग है कुमार का
होगा पर्याप्त बस
एक ही प्रहार तो
एक ही प्रहार से
शीश बिम्बसार का
लोटेगा धूल में
रक्त-लिप्त...
अकस्मात
गरज उठा कोणक
आँखें तरेर कर
”सावधान, भिक्षुवर!
ऐसा न हो कि खंग
जाय उठ आप ही
मागध सम्राट की
हत्या की मंत्रणा
उनके ही पुत्र को
नाश प्रजा-पालक का
भिक्षुवर! ज्ञात है
सीमा को लाँघकर
बोलना न क्षम्य है?“

कपटपूर्ण भिक्षु ने
भीषण अट्टहास किया
अट्टहास करता है
जिस प्रकार बेताल
रक्तयुक्त अस्थि और
मज्जा का पान कर
चषक में श्मशान के।
गूँजा प्रकोष्ठ शून्य
उठता है गूँज ज्यों
अन्तराल पर्वत का
गर्ज से बवंडर के।
प्रतिध्वनित होता ज्यों
स्तब्ध प्रांत रजनी का
कम्प-भरे भय की
प्रकम्प-भरी आहट से।

बोला फिर देवदत्त-
”सपनों के उच्चतम
शृंग पर अजेय-सा
चढ़कर उड़ाता जो
विजय-केतु अपना
होता है बुद्धि और
दृष्टि तीव्र उसकी
किंतु अधिकार है
दृष्टि पर कुमार की
मिथ्या के मोह का।
किसने उठाया है
प्रश्न पिता-पुत्र का?
किसने उभाड़ा है
कोणक-सा पुत्र को
पिता के विरोध में?
व्यर्थ दोषारोपण है
व्यर्थ अभियोग का
एक शुभचिंतक की
वाणी में स्वर खोल
नीति ने पुकारा था।
राज-मुकुट मिलता है
खड्ग के सहारे ही
नीति यही कहती है।
आयु घटी जाती है
प्रतिपल संसार में,
आसन सम्राट का
चाहता है व्यक्ति जो
उसको तो खड्ग के ही
पथ पर है चलना
प्रश्न पिता-पुत्र का
उठता फिर कैसे?

”और एक बात है
मागध-साम्राज्य का
सारा इतिहास ही
शोणित से लाल है,
खड्ग की कहानी ही
इसकी कहानी है
कण-कण में नींव के
इसकी प्रवाहित है
रक्त-धार खड्ग की।

”छिन्न किया मस्तक
रिपुंजय का खड्ग ने
साहसी पुलिक के
आया बालाक तब
स्वर्ण-सिंहासन पर
मागध-साम्राज्य के
भट्टिय के हाथ में
खड्ग वही चमका फिर
राजमुकट पाया तब
तरुण बिम्बसार ने।
रक्त ब्रह्मदत्त का
अर्ध्य बन अंग का
दिन-रात धोता है
चरण गिरिव्रज के

”स्पष्ट है कि राज्य है
खेल बाहु-बल का।
गेंद-सा उछलता वह
इधर-उधर पल-पल
ठोकरों पर बल की,
प्रश्न पिता-पुत्र का
या कि प्रजा-जन का
उठता न इसमें!“

कोणक द्रुत बोल उठा
व्याकुल हो, व्यग्र हो
”चाहता हूँ कर दूँ मैं
घोषणा समग्र यही
देवदत्त बुद्ध हैं
धूर्त्त नहीं गौतम-सा
देवदत्त वीर हैं
बल के प्रतीक हैं
कायर या क्लीव नहीं
भीरु सिद्धार्थ-सा

”चाहता हूँ बोलूँ मैं
जय हो भिक्षुवर की
जय हो उस खड्ग की
जिसके संकेत पर
नूतन युग आता है
किंतु घूम जाता है
मस्तिष्क चक्र-सा
शत-सहस्त्र झंझाएँ
दौड़ रहीं प्राणों में
उठती तरंग पर
तरंग विक्षुब्ध हो
बाड़व की ज्वाला से
भाव-सिंधु खौलता
शांति चाहता हूँ मैं
नीरब एकान्त की।“

और उठ वेग से
कोणक चला गया
शून्य शयन-कक्ष में,
क्रूर कुस्कान एक
होठों पर दौड़ गई
कुटिल देवदत्त के!