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तप्तगृह / सर्ग 5 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

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बिम्बसर सोये थे
रक्त-हीन, पीत वर्ण
तन अशक्त
पलकें अलसाई-सी
यत्र-तत्र स्वेद-बिंदु
सौम्य मुख-मंडल पर
कम्पन से शून्य ओष्ठ
मानो वार्;क्य के
गौरव का दीप-पुंज
जलता हो मंद-मंद
छंद जला करता है
जेसे कारुण्य का;
मानो शिथिल शौर्य
देखता ही स्वप्न मौन
त्यागमयी साधना के
शीतल पर्यंग में
संज्ञा-हीन बैठीहो
पास ही सहिष्णुता।

मुक्त वातायन से
आती थी कंपित पग
ढलती हुई रात की
शंकित-सी चाँदनी
आती है जिस प्रकार
ज्योति सजल कविता की
सोये महानिद्रा में
किसी महान कवि के
उन्नत ललाट को
बार-बार चूमने!

सूनी थी कोठरी
पावक की उष्णता से
पूर्ण, काल-कोठरी
और एक कोने में
जलता था दीप एक
जिसकी अतीव क्षीण
‘लौ’ की पुकार पर
साँसें बिम्बसार की
तिरती थीं मिटते-से
स्वप्न की हिलोर-सी

बाहर पहरुए
चलते थे गर्व से
चलने से होता था
रव जो कठोर अति
कहता था वह पुकार-
”चलते हैं दूत यहाँ
यातना के, यम के
मद-मत्त कोणक के
पागल संकेत पर,
चलते हैं दूत क्रूर
घोर दुरभिसंधि के
पाकर आदेश किसी
कुटिल रक्त-लोलुप का।

मूर्त अभिशाप-सा
रौरव के जलते हुए
कुण्ड-सा भयावना
लगता था तप्तगृह
जिसमें थे नींद-मग्न
बिम्बसार-मानो चुप
आयु का थका हुआ
अतिथि कोई सोया हो
आशा में भोर की!

सोये थे बिम्बसार
पास टूटी खाट के
बैठी थी आँसू से
भींगी हुई कुशला
लगती थी पहले वह
श्रद्धा की दीप्ति-सी
अर्चा-सी स्नेहमयी
आभा-सी स्नेहमयी
लगती थी पहले वह
मधुर-मधुर ममता-सी
पूजा के मौन की
उच्छवसित भाषा-सी
किन्तु आज लगती है
पथ पर अनन्त के
साथ-साथ चलने की
आकुल उत्कण्ठा-सी
लगती उस ज्योति-सी
जिसकी पवित्र रश्मि
हिलती हो देखकर
तिमिर-दस्यु सामने
लगती है आशा के
विकल उस विहंग-सी
जिसको हो देख रहा
क्रुद्ध बधिक लाल-लाल
आग-भरी आँखों से।

बैठी है कुशला
आज साँझ से ही मौन
बैठी है कुशला
पूछा बिम्बसर ने
एक नहीं कई प्रश्न
पूछे प्रश्न बार-बार
किन्तु नहीं रानी ने
उत्तर दिया एक का
सेवा न बोली आज
साधन न बोली आज
बोली तपस्या नहीं
आज बस आँसू ही
बहाती रही वेदना!

सोचा बिम्बसर ने
‘संभव है रक्त में
पुत्र-प्रेम उमड़ा हो
संभव है तप्तगृह
अब असह्य लगता हो
कुशला है रानी ही
कोमल स्वभाव है!’
और नृप सो गए।

दर्पण के आँसू के
देख लिया रानी ने
हृदय बिम्बसर का
चमक उठा पल में जो
भार-नमित पलकों पर
नींद-मग्न राजा की
और वह मौन रही
शत-सहस्त्र आँधियों के
वेग को दबाए हुए
जलते-से प्राणों में
और वह मौन रही
रोक कठिनाई से
भीतर के ज्वार को।
रात्रि रथ अपना ले
बढ़ती गई आगे
तारक-प्रसून-दल
रौंदते कुचलते
कितनी अपूर्ण रहीं
ओसों की कथाएँ!

भट्ठी-सी जलती थीं
रानी की स्मृतियाँ
ऐसा प्रतीत हुआ
भावों को और अधिक
वह न रोक सकती है
धीरे से उठकर तब
सिसकी ले पास गई
मुक्त वातायन के।
देखा कि राजगृह
मुख्य नगर मगध का
सोया इतिहास की
रेखा के चित्र-सा
सोता है शिशु जैसे
जननी की गोद में
और खंड-खंड कर
व्योम का अखण्ड शून्य
उड़ता है सिंहध्वज
गाती है तारों के
शब्दहीन गीत में
अपनी अशेष राग-
वारुणी उँड़ेल कर
निर्जन की निर्झरी
और गिरि-पंक्तियाँ।
पास कुशागार है
राजा बिम्बसार है
स्वप्न जहाँ अंकित हैं
कण-कण में तिल-तिल में
किंतु हाय...

रानी यों
बोल उठी व्याकुल हो-
”राजा बिम्बसार का
अखंड कीर्ति-चिह्न यह
आदृत वैशाली से
कोशल से वत्स से
आदृत अवंती से
शौर्य का प्रतीक यह
किंतु कौन जानता कि
आज मूक छाया में
इस वैजयंती की
छीन रहा पुत्र एक
माँ का सोहाग निज
व्याल क्रूर कर से

”चिर अतृप्त वैभव की
लिप्सा न रुकती है
प्रेम से पिता के या
माता के प्यार से
और जब सत्ता के
मद का प्रभाव हो
हिंसा की प्यास तब
बढ़ती है वेग से
चाहती है रक्त वह
और रक्त माँगती
चाहे स्वजनों का हो
अथवा पुरजन का
रक्त ही बुझाता प्यास
सत्ता के मद की
सत्य यही तप्तगृह
आज सिद्ध करता!

”राजा बिम्बसार का
दोष क्या, न जानती
फिर भी वे बन्दी हैं
पूछता पुकार व्योम
धरती के धैर्य से
क्या न यह अनर्थ है
क्या न घोर पाप यह?
किंतु पाप सत्ता के
हिंसक पुजारी की
दृष्टि में विचित्र एक
अर्थ-हीन शब्द है
वेदी पर सत्ता की
न्याय की न भेंट चढ़े
तो न वह सत्ता है
कोरा शब्द-जाल है
तप्तगृह बोल रहा
वही राजनीति है
जिसके आधार में
बसती प्रवंचना
कपट-काव्य जिसकी
सम्पूर्ण वर्णमाला है
जिसका अस्तित्व हो
कोरी विडम्बना

”बिम्बसार बन्दी हैं
रात-दिन उनके संग
छाया-सी रहकर मैं
सेवा की शक्ति से
साधना, तपस्या से
अपने सोहाग को
रखती सुरक्षित थी
हाय, किंतु कोणक को
यह भी न मान्य है
ज्योंही उषाकाल की
फैलेगी लालिमा
यातना के दूत मुझे
आकर ले जायेंगे
दूर बन्दीगृह से
कोणक के न्याय की
ऐसी ही आज्ञा!

”सोचता हूँ, होगा क्या
हाय, तब राजा का
गिरती-सी काया को
देगा सहारा कौन
और पोंछ अश्रु-कण
स्वेद-कण उनका
कौन देगा सान्त्वना
दुखिया के मन को
बन्दी पिता को कर
पुत्र शांति छीन ले
खेल यह भाग्य का

”कोणक मनुष्य नहीं
पशु से भी नीच है
छीन लिया संबल
सहारा अशक्त का
छीन विश्वास लिया
आशा, भरोसा भी
दुःख से विदग्ध, व्यग्र
शाप-भरे जीवन का
छीन अधिकार लिया
नारी के जीवन का
छीन आधार लिया
पत्नी के तप का
आँसुओं में राजा के
बाँध वर्त्तमान को
कौन अब सुलावेगा
प्यार से अनागत को
भट्टी-सी जलती हुई
लपटों में शून्य की
कौन अब...?“

इतने में
भोर का विहंग उठा
बोल, नींद राजा की
टूट गई पल में
और वे पुकार उठे
रानी का नाम ले
किंतु देख रानी को
पास नहीं अपने
उठने लगे खाट से
कि दौड़ आई कुशला
और लिपट राजा के
चरणों में रो पड़ी
मानो हो रो रही
व्यथा विश्व-भर की
मानो पुकार सुन
क्लान्त बलिदान की
रोती हो दीप-शिखा
मूक आत्म-यज्ञ की
और काल लिखता हो
मानव के अश्रु से
मानव-कलंक
कालिमा की कहानियाँ!

बाद कुछ देर जब
रानी के अश्रु रुके
बोली वह-”आज से
पास नहीं आपके
दासी रह पायेगी
अपने ही रक्त की
बूझ नहीं पाती हूँ
प्रलय-भरी लालसा
जाने विश्व-धर्म ही
जाने युग-धर्म ही
जाने राज-धर्म ही
चाहता अजातशत्रु
खेल कौन खेलना?“

राजा अवाक रहे
फूट पड़ी आँखों से
शून्य धार आँसू की
धुँधले रहस्य-से
एकटक रानी को
मौन रहे देखते

इतने में द्वार खुला
दूत आए सामने
मानो शरीर धर
कोणक का क्रूर और
निर्मल आदेश ही
आया हो सेवा के
दीप को बुझाने