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तबस्सुम के उजालों से ज़रा सी रौशनी कर दो / अजय अज्ञात

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तबस्सुम के उजालों से ज़रा सी रौशनी कर दो
लबों से लब छुआ कर तुम मुअत्तर ज़िंदगी कर दो

दिखा कर इक अदा कोई भी अपनी क़ातिलाना तुम
जुनूने इश्क़ में अव्वल मेरी दीवानगी कर दो

बहुत प्यासा हूँ सदियों से किसी खारे समंदर से
नदी बन कर चले आओ ज़रा कम तिशनगी कर दो

दिए थे ज़ख़्म जो तुम ने वो सारे भरने को आए
नया इक ज़ख़्म दे कर फिर मुकम्मल शाइरी कर दो

ख़ुशी का लुत्फ़ लेने दो ‘अजय अज्ञात’ को जी भर
दुआएं दे के तुम सारे ग़मों को मुल्तवी कर दो