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तबीअत रफ़्ता रफ़्ता ख़ूगर-ए-ग़म होती जाती है / सदा अम्बालवी
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तबीअत रफ़्ता रफ़्ता ख़ूगर-ए-ग़म होती जाती है
वही रंज-ओ-अलम है पर ख़लिश कम होती जाती है
ख़ुशी का वक़्त है और आँख पुर-नम होती जाती है
खिली है धूप और बारिश भी छम-छम होती जाती है
उजाला इल्म का फैला तो है चारों तरफ़ यारों
बसीरत आदमी की कुछ मगर कम होती जाती है
करें सज़्दा किसी बुत को गवारा था किसे लेकिन
जबीं को क्या करें जो ख़ुद-ब-ख़ुद ख़म होती जाती है
तुझे है फ़िक्र मेरी मुझ से बढ़ कर ऐ मिरे मौला
मुझे दरकार है जो शय फ़राहम होती जाती है
उठी क्या इक निगाह-ए-लुत्फ़ फिर अपनी तरफ़ यारों
कि हर टूटी हुई उम्मीद क़ाएम होती जाती है
बड़ा घाटे का सौदा है ‘सदा’ ये साँस लेना भी
बढ़े हैं उम्र ज्यूँ-ज्यूँ ज़िंदगी कम होती जाती है