भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तब और अब / विजया सती

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन अधिक सम्पन्न था पहले

घूमा था ऊँची पहाड़ी-नदी तट

तंग गलियाँ और बाज़ार

स्वस्थ पिता की उंगलियाँ थाम!


सहेजे थे काँस-फूल अौर रंगीन पत्थर यात्राओं में

कभी ठिठक-ठहर जाते थे क़दम

और झड़ते प्रश्न फैली आँखों से बेहिसाब!


उत्तर सब थे उनके पास

और था कहानियों से भरा बस्ता

जिसमें से झाँकते थे

टाम काका

वेनिस के सौदागर

और पात्र पंचतंत्र के !


रीतता नहीं था कभी मन

ऐसा भरापन था

भीतर-बाहर


पिता की बूढ़ी उंगलियाँ अब

नहीं थामी जाती

तेज़ है रफ़्तार और राहें बेहिसाब

रोज़ होते हैं कई किस्से

का‌लेज का मंच कभी सूना नहीं रहता!


बहुत सम्पन्न है अब

आसपास की दुनिया

पर निपट अकेला छूट जाता है

मन कभी-कभी

वह सम्पन्नता शायद

अब नहीं रही!