भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तब तुम्हारी याद आई / धीरज श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गैर सा,व्यवहार अपने
जब कभी करने लगे !
मीत फिर मुझको बहुत ही
तब तुम्हारी याद आई ।

जब कभी खुशियाँ मिलीं इस
जिन्दगी की राह में।
छटपटाईं खूब कलियाँ
तिलमिलाईं डाह में।
नेह के मोती नयन से,
अनवरत झरने लगे
मीत फिर मुझको बहुत ही
तब तुम्हारी याद आई ।

धड़कनों सँग बिजलियों की
खूब आपस में ठनी !
मेघ बरसे टूटकर या
जब हवा पागल बनी !
या निशा के साथ ही मन-
प्राण जब डरने लगे
मीत फिर मुझको बहुत ही
तब तुम्हारी याद आई ।

एक प्यारा फूल सुरभित
आ गया जब हाथ में
उठ पड़े अहसास कोमल
कल्पना के साथ में
पर किताबों में उसे जब
खोलकर धरने लगे
मीत फिर मुझको बहुत ही
तब तुम्हारी याद आई।

वक़्त ने संवाद मुझसे
भूल वश जब भी किया !
या कभी छवि ने तुम्हारी
रंग फागुन का लिया !
भूलकर शिकवे गिले सब
ज़ख्म जब भरने लगे
मीत फिर मुझको बहुत ही
तब तुम्हारी याद आई ।