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तब दोसर कोय की करतइ / सिलसिला / रणजीत दुधु

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सागर से न´ उठतइ बादर
धरती रहतइ बन के कातर

पहाड़ के फटतई सीना
जंगल नहीं पुकार करतइ
परकिरती कहर जब ढइतइ
तब दोसर कोय की करतइ।

कइसे कुछ वास्ता रहतइ
जब सब रिस्ता टूट जइतइ
दिल में न´ कुछ रहतइ कसक
दिलदार दिल में न´ बसतइ
तब दोसर कोय की करतइ।

बेराग के गइतइ रागी
चुनतइ जेकरा सब दागी
भ्रस्ट हो जइतइ जब समाज
बेटा बाप साथे पीतइ
तब दोसर कोय की करतइ।

जे जइसन सपना सजावे
उ अउसन मंजिल के पावे
सपने से सजल हे दुनिया
जे सपने के न´ सजइतइ
तब दोसर कोय की करतइ।

झगड़ा हे नाश के पहरा
देतो घाव बड़ी ई गहिरा
परेम सवरग सदा जुड़वा
माउगे मरद रोज लड़तइ
तब दोसर कोय की करतइ।

जीवन जीना एक कला हे
भला ले ई दुनिया भला हे
जीवन हे सबसे अनमोल
आत्महत्या से गँवइतइ
तब दोसर कोय की करतइ।

जेकर कलम सच सच बोले
दिल दिमाग दुन्नू के खोले
समाज के अगुआ बने में
कविये आउ लेखक डरतइ
तब दोसर कोय की करतइ।