भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तब लगता है / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब सुनता हूँ और देखता सुर बेसुर है होता
खींच ले गया तार बीन के, तोड़-तोड़ कर उसको
सदियों से साधा है सुर ने राग अमर में जिसको
तानपुरे के तारों पर देखूं कौवे का खोता ।

जब भी देखूं मन्दिर के गुम्बद को झुका हुआ-सा
माता की मूर्ति उदास है, गायब हैं दरवाजे
मठ में न संन्यासी, ना ही कोई भक्त विराजे
देव-मंत्रा का आवाहन तक, सब कुछ रुका-रुका-सा ।

रेतों के नीचे नदियाँ हैं, छलमल-छलमल व्याकुल
चन्दन वृक्षों की शाखों को मिल कर काट रहा है
सब कुसुमों को चुन-चुन कर वेदी से साट रहा है
मरा हुआ, बरगद के नीचे, क्रौंच-पड़ोकी का कुल।

तब लगता है इतना क्यों कमजोर हुआ मैं तन से
काश अकेले लग पाता मैं, खड़े हुए पचपन-से ।