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तब हम किसी से पूछ नहीं सकते थे / संजय कुमार शांडिल्य

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तब हम ख़ूब चटख लाल और तड़के हुए पीले रंगों की कमीज़ें पहनते
दुख सेमल के फूलों से हलके और उजले गिरते थे
बेआवाज़
हमारे लगाव मेमने की तरह मासूम और नफ़रतें सिंह की तरह हिंस्र

प्यार हमने तभी किए जब प्यार के बारे में ज्ञान किताबी नहीं था ।

वह साँवली सी लड़की जिसपर पहली बार दिल आया अब दादी बन अपने पोते की मासूम मुस्कुराहट पर फ़िदा होती होगी
मैं जब आठवीं में था वह बी०ए० में पढ़ती थी और जैसे आम में मंजर आते हैं वैसे मुस्कुराती थी
मुस्कुराहट का कोई सिलेबस तो तयशुदा होता नहीं
हम आज भी उस मुस्कुराहट का बेसदा और निर्गंध अनुवाद पढ़ना चाहते हैं ।

वे प्यार की सड़कें जिसपर हम मोरों की तरह नाचे फिर किसी क़स्बे, गाँव या महानगर में नहीं ढले
तब मोहब्बतें कलगी की तरह उगी रहती ऐन ललाट के ऊपर
हम बेख़ौफ़ ज़माने की आँखों में उसका लाल रंग
गड़ाए हुए डगरते
हाय वह दूध में मिले हुए हल्दी-सी गोराई पहने बैजनी समीज और हरे दुपट्टे वाली परियाँ
हमने तब अपने प्यार को अधिकतर यतीम रखा
जिसका बेइन्तहा दर्द कलेजे के किसी गोशे में
सैकड़ों सुइयों की तरह चुभता हैं ।

वासनाओं के इल्म तब ज़िन्दगी के अनजाने इलाके थे
मोहब्बतें खरगोश के कानों में हवाओं की संगीतमय सरगोशियाँ
वे फ़िल्में जिन्हें देखकर हम रोए रात भर और जिन नायिकाओं से जुड़े दिल के सबसे महीन उजालों में
मुट्ठियाँ भींचते हुए कि जो पर्दे के बाहर चिन रहा होता नायक हम उन दीवारों को आग लगा देते गरचे वो नहीं होता पर्दे पर ।

तब पगडण्डी वही थी जो सरसों के फैले हुए खेतों तक पहुँचने के लिए होती
प्यार तो मैंने तभी किया जब हम प्यार कर सकते थे
लेकिन वे ही मौसम याद हैं जिसमें मुस्कुराहटें
आमों में मंजर की तरह उतरते थे
हम सिनोरिटा का अर्थ जानना चाहते थे और तब किसी से पूछ नहीं सकते थे ।