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तभी डूबते को कहीं दूर पर (तीसरा सर्ग) / गुलाब खंडेलवाल
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तभी डूबते को कहीं दूर पर
सहारे-सा तिनके का आया नज़र
रुका अजनबी एक आ मेरे पास
कहा-'मैं मिला दूंगा, मत हों हताश'
जहां आपके दिल की मलिका गयी
न मुझसे छिपी राह उस गाँव की
नहीं यों तो डर है किसी बात का
ज़रा बस है मुश्किल सफ़र रात का
अँधेरे में जाना है जमना के पार
है पैदल ही करना भी तय फिर कछार
वहाँ पर है जो एक जंगल घना
नहीं खेल समझें उसे लाँघना
भरे डाकुओं से है उस ओर घाट
हुए क़त्ल पिछले दिनों सात-आठ
उन्हें पार कर गाँव में हम अगर
पहुँच भी गये तो है कुत्तों का डर
वे हर अज़नबी पर मचाते है शोर
हमें रात में लोग समझें न चोर
मिलें साँप-बिच्छू भी जो रेत पर
तो मरने में फिर क्या रहेगी कसर!
सभी मुश्किलें पार होंगी ये जब
हम अपने ठिकाने पे पहुँचेंगे तब