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तमन्ना जब हक़ीक़त से लड़ी है / प्रेम भारद्वाज

तमन्ना<ref >कामना </ref > जब हक़ीक़त<ref >यथार्थ </ref > से लड़ी है
दिले-नादान<ref>भोला दिल </ref> के सिर आ पड़ी है

कभी गौरी जो गंगा से लड़ी है
पड़ी शिवजी को फिर मुश्किल बड़ी है<ref >एक लोककथा प्रसंग</ref >

वली<ref >महात्मा </ref > जो हैं ,छुएँ आकाश बेशक
नज़र उनकी तो धरती पर गड़ी है

रहे बचपन पे भी काबू बुज़ुर्गो
इसे होना बुढ़ापे की छड़ी है

ये रोशन क्या बुढ़ापे को करेगी
तुम्हारे हाथ में जो फुलझड़ी है

शराफ़त यूँ है जैसे एक लड़की
भरे बाज़ार में तन्हा खड़ी है

निकलने प्रेम से थे हल तो बेहतर
यहाँ लोगों की उल्टी खोपड़ी है.

शब्दार्थ
<references/>