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तमाम उमर वोही किस्सा-ए-सफ़र कहना / मोहसिन नक़वी

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तमाम उमर वोही किस्सा-ए-सफ़र कहना
के आ सका न हमें अपने घर को घर कहना

जो दिन चढ़े तो तेरे वस्ल की दुआ करना
जो रात हो तो दुआ को ही बे-असर कहना

वो शख्स मुझसे बहुत बदगुमान सा रहता है
ये बात उस से कहो भी तो सोच कर कहना

कभी वो चाँद जो पूछे के शहर कैसा है ?
बुझे बुझे हुए लगते हैं बाम-ओ-दर कहना

हमारे बाद अजीजो, हमारा अफसाना
कभी जो याद भी आए तो मुख्तासिर कहना

वो एक मैं की मेरा शहर भर को अपने सिवा
तेरी वफ़ा के तकाज़ों से बे-खबर कहना

वो एक तू की तेरा हर किसी को मेरे बग़ैर
मुआमलात-ए-मोहब्बत में मोतबर कहना

वफ़ा की तर्ज़ है मोहसिन के मसलिहत क्या है
ये तेरा दुश्मन-ए-जान को भी चारा-गर कहना