भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तमाम उम्र रहा दर्द की रिदा ओढ़े / कविता सिंह
Kavita Kosh से
तमाम उम्र रहा दर्द की रिदा ओढ़े
थका हुआ था बदन सो गया क़ज़ा ओढ़े
सुकूत तारी है जिस सिम्त भी नज़र डाली
हयात आयी नज़र दर्दे इंतेहा ओढ़े
अभी जो आँख की कोरों में इक नमी-सी है
ये अश्क जज़्ब ही हो जायेंगे सज़ा ओढ़े
क़फ़स के कैद से आज़ाद कैसे हो पाखी
के रूह थक गई है जिस्म की क़बा ओढ़े
शफ़क़-सी शाम दरो बाम पर उतर आई
गमों की दर्द भरी देखिए सदा ओढ़े
वफ़ा की खा के कसम बेवफ़ा हुए कितने
खड़ी है अब भी 'वफ़ा' देखिये वफ़ा ओढ़े