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तमाम रात मेरे घर का एक दर खुला रहा / परवीन शाकिर

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तमाम रात मेरे घर का एक दर खुला रहा
मैं राह देखती रही वो रास्ता बदल गया

वो शहर है कि जादूगरनियों का कोई देस है
वहाँ तो जो गया कभी भी लौट कर न आ सका

बिछड़ के मुझसे ख़ल्क को अजीज हो गया है तू
मुझे तो जो कोई मिला तुझी को पूछता रहा

वो दिलनवाज़ लम्हे भी गई रुतों में आए जब
मैं ख़्वाब देखती रही वो मुझको देखता रहा

वो जिसकी एक पल की बेरुखी भी दिल को बार थी
उसे खुद अपने हाथ से लिखा है मुझको भूल जा