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तमाशा आँख को भाता बहुत है / महेश अश्क

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तमाशा आँख को भाता बहुत है
मगर यह खून रुलवाता बहुत है।

अजब इक शै थी वो भी जेरे दामन
कि दिल सोचो तो पछताता बहुत है।

किसी की जंग उसे लड़नी नहीं है
मगर तलवार चमकाता बहुत है।

अगर दिल से कहूँ भी कुछ कभी मैं
समझता कम है समझाता बहुत है।

अजब है होशियारी का भी नश्शा
मजा आए तो फिर आता बहुत है।

हसद की आग अगर कुछ बुझ भी जाए
धुआँ सीने में रह जाता बहुत है।

हमारे दुख में तो इक, बात भी थी
तुम्हारे सुख में सन्नाटा बहुत है...।