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तमाशा देखना हो तो ज़माना दौड़ आता है / डी .एम. मिश्र
Kavita Kosh से
तमाशा देखना हो तो ज़माना दौड़ आता है
लगे जब आग बस्ती में तो दरिया सूख जाता है
खुदा न ख़्वास्ता ठोकर कहीं लग जाये तब देखो
जिसे कहते हो अपना ख़ास वह भी मुस्कराता है
मगर अब भूल जाओ चांदनी रस्ता दिखाएगी
बुरा जब वक्त है सितारा डूब जाता है
यही आता है बस जी में लगा दूं आग गुलशन में
असल जब रूप अपना बागबां कोई दिखाता है
भले पतवार दे धोखा, भले मौसम हो बेगाना
अगर हो दोस्ती पक्की तो तूफां भी बचाता है
वही चूजा जो अंडा फोड़कर बाहर निकल आता
क़फ़स में गर रहे कुछ दिन तो उड़ना भूल जाता है
न दें गर साथ सूरज, चांद तो मायूस मत होना
अभी घनघोर जंगल में भी जुगनू टिमटिमाता है