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तय था हमारा क़त्ल ,सज़ा के बगै़र भी / अजय सहाब
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तय था हमारा क़त्ल ,सज़ा के बगै़र भी
मुजरिम हमीं बने थे ,ख़ता के बग़ैर भी
कोई हुनर नहीं है पे , मशहूर हैं बहोत
जलते हैं ये चिराग़ ,हवा के बग़ैर भी
जब भी किसी ने हाथ पे, लिक्खा है मेरा नाम
चमके हैं उसके हाथ ,हिना के बग़ैर भी
हर सम्त क़त्लो खून से ,साबित हुआ यही
चलता है ये जहान ,खुदा के बग़ैर भी
नागाह ख़ल्वतों में जो आई तुम्हारी याद
चमकी शबे फ़िराक़,ज़िया के बगै़र भी
खुद्दार हो कोई तो ,ज़रूरी नहीं है मौत
इक शर्म मारती है ,क़ज़ा के बग़ैर भी
उरयानियों के दौर में ,ग़ैरत तो है 'सहाब'
मेरा बदन ढका है ,क़बा के बग़ैर भी