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तरणि तार दो अपर पार को / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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तरणि तार दो
अपर पार को
खे-खेकर थके हाथ,
कोई भी नहीं साथ,
श्रम-सीकर-भरा माथ,
बीच-धार, ओ!
पार किया तो कानन;
मुरझाया जो आनन,
आओ हे निर्वारण,
बिपत वार लो।
पड़ी भँवर-बीच नाव,
भूले हैं सभी दांव,
रुकता है नहीं राव--
सलिल-सार, ओ!