तरह-तरह की मुसीबत और एक जाँ के लिये / नज़ीर बनारसी
तरह-तरह की मुसीबत और एक जाँ के लिये
कहाँ पे भेज दिया तूने इम्तहाँ के लिये
हर एक रास्ता मस्दूद <ref>अवरूद्ध</ref> है बगैरे जुनूँ
खिरद <ref>बुद्धि</ref> कोहे गिराँ <ref>पर्वत से बड़ी</ref> अज्मे नौजवाँ <ref>जवानी का संकल्प</ref> के लिये
अजीब चीज है किस्मत की ना रसाई भी
कदम लिये भी तो कमबख्त पासबाँ के लिये
वो साथ छोड़ के बैठें जो साथ चल न सकें
बलाए जाँ न बनें पूरे कारवाँ के लिये
हमारे नाम से सुर्खीए दास्ताँ न सही
हमारा खून तो हाजिर है दास्ताँ के लिये
कुयूदे इश्क <ref>प्यारी की रीति</ref> की मजबूरियाँ अरे तोबा
जबान रख के भी तरसा किये ज़बाँ के लिये
खता मुआफ इजाजत मिले तो कुछ पूछूँ
अकेले रात में निकले हो तुम कहाँ के लिये
मिरी नहीं मिरे सजदों की आबरू रख ले
कि मेरा सर नहीं औरों के आस्ताँ के लिये
’नजीर’ फासला-ए-उम्र अब तमाम हुआ
वहाँ की फिक्र करो आये हो जहाँ के लिये