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तरुण / महेन्द्र भटनागर

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दुनिया के अगणित मुक्त-तरुण
बंधन की कड़ियाँ तोड़ रहे !

युग-जनता ने करवट बदली
आज़ाद गगन का मूल्य गहा,
जनता ने जाना-पहचाना
‘कटु पशुबल का हो नाश’, कहा !
जाग्रत मनुज लुटेरों के गढ़
रज-सम ढूहों से फोड़ रहे !
:
सम्मुख दृढ़ चट्टानें आयीं
पथ की बाधाएँ बन दुर्दम,
भीषण-शर के आघात हुए
नव-रूप मनुज पर छा निर्मम,
दानवता से जूझ रहे जन-
जन, दुख के बादल मोड़