भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तरुवर / ओमप्रकाश सारस्वत
Kavita Kosh से
गाँव के
बड़े बूढ़ों-जैसे हैं तरुवर
इन्हें इज्जत से बुलाओ
मत समझो
इनको
खर्च हुआ कोष
अनुभवों की
लबालब भरी
सदी हैं ये
समय की जरूरत हैं
रिजर्व बैंक
इन्हें सादर
(सा-डर) अपनाओ
पूरे जनपद के
विश्वास को
बाँधा है
जड़ों से
धूप
रोज सलाह-मशविरे को
आती है
चिड़ियां
पूछ जाती हैं
बच्चों की बालग्रही
मोरनियाँ
धागा बनवाती हैं
इनके हाथ में
बड़ा है गुण
इनसे
अपना गुड़ बनवाओ
मिट्टी और मौसम की
रक्षा में सावधान
ये घर की लाज
ढोते हैं
इन्हीं के
सिर पे है
दारोमदार
ये गाँव के ध्वज
धरती की
पगड़ी होते हैं
ये बड़े वंशवृक्ष की
जड़े हैं
इन्हें हिफाजत से बचाओ