तरु और लता / ‘हरिऔध’
तरु कर छाया दान दुसह आतप है सहता।
सुख देने के लिए लता हित रत है रहता।
शिर पर ले सब काल सलिल धार की जलधारा।
बहुधा करक समूह पात का सह दुख सारा।
अति प्रबल पवन के वेग से विपुल विधूनित हो सतत।
पालन करता है लता का कर परिपालन पूत व्रत।1।
होता है जिस काल कठिन आघात विटप पर।
कँपता है उस काल लता का गात अधिाक तर।
कटती छँटती बार बार है समधिाक नुचती।
पतन हुए पर भी न लता है तरु को तजती।
सुख में सुखित बहुत बनी दुख में परम दुखित रही।
वह जीती मरती विकसती रहती है तरु साथ ही।2।
पति है वह जो प्रीति निरत तरु सा दिखलावे।
है पत्नी वह सती जो लता सी बन पावे।
पति पत्नी जो प्यार रंग में रँगे न होवें।
मनो मलिनता जनित जो न सारा मल खोवें।
तो क्यों वरणीय विधाान से परिणय बंधान में बँधो।
क्या प्रेम साधाना में लगे साधान मंत्रा न जो सधो।3।
पति हो कामुक परम कामुका पत्नी होवे।
पति भूले पति भाव पतिव्रत पत्नी खोवे।
कर मत्सर मद पान बने प्रियतम मतवाला।
समता मायामयी मानिनी होवे बाला।
पति अहं भाव से हो भरा वनिता हो ममता नता।
तो तरुवर है पति से भला, बर है वनिता से लता।4।