तरु पर कुहुक उठी पड़कुलिया-
मुझ में सहसा स्मृति-सा बोला-
गत वसन्त का सौरभ, छलिया।
किसी अचीन्हे कर ने खोला-
द्वार किसी भूले यौवन का-
फूटा स्मृति संचय का फोला।
लगा फेरने मन का मनका
पर हा, यह अनहोनी कैसी-
बिखर गया सब धन जीवन का!
जीवन-माला पहले जैसी-
किन्तु एक ही उस में दाना-
तू निरुपम थी, अपने ऐसी!
तेरा कहा न मैं ने माना-
'भर लो अपनी अनुभव-डलिया।'
निरुपम! अब क्या रोना-गाना!
धूल, धूल मधु की रंगलिया!
परिचित भी तू रही अचीन्ही-
तरु पर कुहुक उठी पड़कुलिया!
डलहौजी, 9 सितम्बर, 1934