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तर्क-ए-तआलुक-ए-कलम / रेशमा हिंगोरानी

बड़ी मुद्दत के बाद आज फिर उठी है कलम,
और सूखी थी सियाही जो,
मुस्कुराई है!
मगर है फिर भी बेबसी ऐसी…
वो सभी कुछ जो कहना चाहा सदा,
आज कागज़ पे उतारूँ कैसे?

ख़याल उड रहे हैं दूर
बादलों में कहीं,
टिके हुए हैं मगर अश्क तो
वहीं के वहीं,
पलक उठाऊँ तो,
इनको भी खो न जाऊँ कहीं...

अब इस कलम को टिकाना होगा,
सुनहरे ख़्वाब भुलाना होगा,
एक अर्से से जो हैं जाग रहीं,
अब इन आँखों को सुलाना होगा!

(तर्क-ए-तआलुक-ए-कलम - कलम से जो रिश्ता है, उसे तोडना)
26.09.97